लखनऊ आते ही दीवाना बना देता है चारबाग रेलवे स्टेशन, पहले नाम था चहार बाग

January 10, 2022, 4:43 PM
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दूसरे शहर से आने वाले शख्स के कदम जैसे ही चारबाग रेलवे स्टेशन पर पड़ते हैं यहां की खूबसूरती और भव्यता उसे दीवाना बना देेती है। देश के सबसे खूबसूरत रेलवे स्टेशनों में शुमार चारबाग को ऊपर से देखने पर ये शतरंज की बिसात जैसा लगता है। तो आइये कुछ इतिहासकारों से बात करके चारबाग रेलवे स्टेशन के इतिहास और खूबियों से कराते हैं आपको रूबरू…

नवाब आसफुद्दौला के पसंदीदा बाग ऐशबाग की तरह चारबाग भी शहर के खूबसूरत बाग में से एक था। यह कहना है इतिहासकार योगेश प्रवीन का। किसी चौपड़ की तरह चार नहरें बिछाकर चार कोनों पर चार बाग बनवाएं गए थे। इस तरह के बागों को फारसी जबान में चहार बाग कहा जाता है। यहीं चाहर बाग बाद में चारबाग में तब्दील हो गया।

अंग्रेजों ने रखी थी स्टेशन की नींव

 

इतिहासकार रोशन तकी बताते हैं कि लखनऊ के मुनव्वर बाग के उत्तर में चारबाग की बुनियाद पड़ी थी। जब नवाबी दौर खत्म हुआ तो इस बाग की रौनक भी फीकी पड़ गई। उसी दौरान अंग्रेज सरकार ने बड़ी लाइन के एक शानदार स्टेशन की योजना बनाई। अंग्रेज अधिकारियों को मोहम्मद बाग और आलमबाग के बीच का ये इलाका बहुत पसंद आया। ये वो दौर था जब ऐशबाग में लखनऊ का रेलवे स्टेशन था। चारबाग और चार महल के नवाबों को मुआवजे में मौलवीगंज और पुरानी इमली का इलाका देकर यहां ट्रैक बिछा दिए गए। 21 मार्च 1914 को बिशप जॉर्ज हरबर्ट ने इस की बुनियाद रखी

 

70 लाख आई थी लागात

 

उस दौर के प्रसिद्ध वास्तुकार जैकब ने इस इमारत का नक्शा तैयार किया। चारबाग स्टेशन के बनने में उस वक्त 70 लाख रुपये खर्च हुए। राजपूत शैली में बने इस भवन में निर्माण कला के दो कौशल दिखाई देते हैं। पहला ऊपर से देखने पर इस इमारत के छोटे-बड़े छतरीनुमा गुंबद मिलकर शतरंज की बिछी बिसात का नमूना पेश करते हैं।

 

बाहर नहीं जाती ट्रेन की आवाज

 

अपनी जिन खूबियों की वजह से चारबाग स्टेशन का शुमार मुल्क के खास स्टेशनों में होता है उन्हीं में से एक है यहां ट्रेन की आवाज बाहर न आना है। योगेश बताते हैं कि चाहे जितने शोरशराबे के साथ ट्रेन प्लेटफार्म पर आए उसकी आवाज स्टेशन के बाहर नहीं आती।

यहीं हुई थी गांधी-नेहरू की पहली मुलाकात

देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बापू से पहली मुलाकात लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन में हुई थी। महात्मा गांधी 26 दिसम्बर 1916 को पहली बार लखनऊ आए थे। मौका था कांग्रेस के अधिवेशन का, जिस दौरान वह पांच दिनों तक शहर में रहे। तकरीबन 20 मिनट की मुलाकात में पंडित जी बापू के विचारों से काफी प्रभावित हुए। जवाहर लाल नेहरू अपने पिता मोती लाल नेहरू के साथ आए थे। इस मुलाकात का जिक्र नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है। जिस जगह पर गांधी नेहरू की मुलाकात हुई वहां आजकल स्टेशन की पार्किंग है। इस मिलन की निशानी के तौर पर उस जगह पर एक पत्थर भी लगा है।

 

यहां  मिलेगी रेलवे से जुड़ी अहम सूचनाएं, आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं ये एप

 

Source – Amar Ujala

   
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